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अक्तूबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

Tamso Ma Jyotirgamaya

|| तमसो माँ ज्योतिर्गमय ||                                       उपनिषद का ये सूत्रवाक्य अपने में बहुत बड़ा भाव समेटे हुए है  |तम का अर्थ है अंधकार ,जबकि ज्योति का अर्थ है प्रकाश | इस प्रकार संपूर्ण वाक्य का  शाब्दिक अर्थ हुआ कि  मुझे अन्धकार से प्रकाश की और ले चलो | परतु अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने में कौन सहायक  होगा ?                             विचार करने पर पता चलता है की ईश्वर की असीम अनुकम्पा से एक योग्य गुरु मिल जाय, तो अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने वाली यात्रा सहज और सुगम हो जाएगा |गुरु दो शब्दों के मेल से बना है "गु" ओर "रु"| गु का अर्थ होता है- अन्धकार तथा  रु  का अर्थ होता है- प्रकाश, अर्थात गुरु वह है जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाए | तभी तो तुलसीदास ने रामचरितमानस में गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए अनेक पदों की रचना की है | यथा                                                        बंदौ गुरु पद कंज कृपा सिन्धु नर रूप हरि,                                                       महा मोह तम पुंज जासु वचन रवि कर  निकर |                          आशय यह

Krishak ki Subah ( A Farmer's Morning )

सुबह हुई पंछी जागे, दिनपति निकले दिश पूरब से |                                                तारे डूबे,रजनी भागी                                                शशि हर गए अब सूरज से || कुछ क्षण में सूरज प्रचंड हुआ  कमल खिले भौरे जगे |                                                  अली मुक्त हुआ                                                   अब नीरज से... मधुमक्खी निकली  अब छत्तों से...                                                 चली हवा है मंद-मंद                                                 सर-सर की ध्वनि अब पत्तों से  कृषक उठे  लेकर हल बैल                                                   चले  जोतने                                                   निज खेतों पर  खेत जोतकर बीज डालकर                                                   करने लगे                                                  थोडा विश्राम उसकी गृहनि कुछ ही देर में लेकर पहुंची थोड़ा जलपान !                                                   करके जलपान कृषक अपने                                                  

Barish(The Rain)

सूख रहा था सरी-तड़ाग  सब  कही नहीं  था पानी | लुक छिपकर फिर शैल शिखर से  उतर पड़ी  वर्षा रानी|                                                     मेघ गगन में कभी गरजते                                                      कभी मतंगज हाथी जैसे,                                                     झूम-झूमकर जल बरसाते                                                     धरा विहंसती  प्रियतम  जैसे|   कुछ पल में जल की धारों से,   नदियाँ तड़ाग  सब उमड़ पड़ी |                                                      मेढ़क की टर-टर तानों पर                                                       अब मोर भी हंस कर नाच पड़ी|  वर्षा रानी के स्वागतार्थ  सब निकल  पड़े नर-नारी,  हलधर भी मन में मुदित हुए  फिर फ़ैल गई खुशियाँ सारी ||

Bhikhari.......

देखो उसे जो जा रहा है....                      कौन है वह? उत्तर मिला,                     भूखा भिखारी ! पेट की खातिर मिटाने  भूख वह  लेकर कटोरा और  लाठी  जा रहा है | आँख जिनकी गद्धियों  में घुस चुकी है,                    पीठ  धनुषाकार  जिनकी हो गयी है| पेट में दाने नहीं है,                      घरो में खाने नहीं हैं , दिन भर वह भूखा प्यासा                       राह पर वह, जा रहा है!!! एक चिथरे धोतियों में है लपेटा...                   भूत सा वह, जा रहा है!!! दानियों के दान का  गुणगान करता...                    चीखता वह,  जा रहा है!!!  भूख की ललकार सुनकर...                  गृहस्थ की फटकार सुनकर ,  पगडंडियों पर पड़े पत्तल...                   चाटने वह,  जा रहा है!!! उसी क्षण  फिर चार कुक्कर...                      देख जूठी रोटियों को, भिड़ पड़े है!!! भिखारी कमजोर दुर्बल,                     व्याधि से कमजोर निर्बल... डरकर हटा पीछे ,                   परन्तु पास के पाषाण से...  चोटिल हुआ वह,                   जा रहा है!!! भूख से संघर्ष करता...                   कठिन त्रिन पगडंडिय

Purvi Jharokha: Varna Vyawastha...

Purvi Jharokha: Varna Vyawastha... : श्री कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि.... "चातुर्वर्न्यम मया श्रीस्ट्वा गुण कर्म ...

Varna Vyawastha...

श्री कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि....                                                          "चातुर्वर्न्यम  मया श्रीस्ट्वा गुण कर्म विभागसः" अर्थात ...मैंने चार वर्णों की रचना मनुष्य के गुण,कर्म एवं उनके संस्कारों के आधार पर हीं किया है | कुछ लोग ऋग्वेद के  पुरुषसूक्त के  अनुसार वर्णों कि उत्पत्ति ब्रम्हा के मुख से ब्राह्मन , भुजा से क्षत्रिय ,पेट से वैश्य तथा जंघा से सूद्र  की  उत्पत्ति बतलाते हैं | परन्तु मेरे विचार से यह सत्य कम तथा दंत कथा या बोध कथा ज्यादा दीखता है ,क्योंकि जैविक दृष्टी से ऐसा होना कठिन ही नहीं, असंभव है |                                                                                                                      तत्कालीन समाज में न तो जगह -जगह इतने तकनीकी  केंद्र थे और न ही औद्योगिक प्रशिक्षण  केंद्र थे ,लोगों का जीवन सरल और कृषि प्रधान था | न तो संगठित सरकार थी और न ही यातायात के लिए विकसित साधन थे ,इसलिए लोगों को चार वर्णों में बांटकर श्रम विभाजन एवं विसिस्तीकरण के सिद्धांत पर समाज का सुचारू रूप से चलाने में वर्ण व्यवस्था का महत्वपूर्ण

Dharm kya hai????

लोगों के मन में धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की अवधारणा एवं  भ्रान्ति व्याप्त है |कोई धर्म को दकियानूसी प्राचीन विचारधारा ,तो कोई धर्मं को अफीम बतलाते है |अक्सर धर्म और religion के बारे में लोगों के मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है की दोनों एक ही है, परन्तु तात्विक दृष्टी से विश्लेषण करने पर धर्म और religion के बीच में सूक्ष्म अंतर है | Religion जहाँ  एक पंथ है वहीँ धर्म मनुष्य के व्यक्तिगत , सामाजिक ,राजनितिक आर्थिक व्यक्तित्व  के विकास  में सहायक है |                                                                              धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "ध्री" धातु से हुआ है |"ध्री" शब्द का मुख्य अर्थ धारण करना है |अर्थात जिस नियम से इस जगत का धारण ,पोषण ,संरक्षण एवं संवर्धन होता है ,वही धर्मं है |अतः हमें धर्मं की रक्षा करनी चाहिए | यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा |कहा भी गया है ...."धर्मो रक्षति रक्षितः " |    

ahinsa paramo dharmah

वेदंताकारो ने कहा है अहिंसा परमो धर्मः अर्थात अहिंसा हीं सबसे बड़ा धर्म है | परन्तु अहिंसा के बारे में लोगों का विचार संकुचित है | साधारणतया लोग यह मानते है की मांस-मछली का सेवन न करना हीं अहिंसा है | परन्तु यह तो अहिंसा का एक छोटा सा भाग है | विस्तृत अर्थों में अहिंसा का तात्पर्य , मन , कर्म और वचन से किसी भी जीव को कष्ट  नहीं  पहुचाने से सम्बंधित है | कुछ लोग मांस नहीं  खाकर दूध पीते है और अपने को अहिंसक बताते है , जबकि मेरा मानना है की ज्यादा दूध का सेवन हिंसा की श्रेणी में आता है | क्योंकि गाय से दूध निकलने के क्रम में बछरे को गाय के पैर में रस्सी से बंधा दिया जाता है | दूध दुहने के क्रम में गाय के बच्च्रे को भारी कष्ट  होता है और हम ये मान चुके है कि किसी भी जीव को मन, कर्म, वचन से कष्ट  पहुँचाना हिंसा है | इस कसौटी पर दूध दुहना बेचना  तथा उसका उपयोग करना भी हिंसा है|

Pashu Bali ka Auchitya

अश्वं नैव गजं नैव ,व्याघ्रं नैव नैव च ,अजा पुत्रं बलिम दद्यात दैव दुर्बल घातकः !!!! दुर्गा पूजा शक्ति पूजा है| इसमें, नवरात्र के माध्यम से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का विकास किया जाता है| परन्तु कुछ लोग ,इस पवित्र नवरात्री में बकरे की बलि देते है|  घोड़े की नहीं ,हाथी की नहीं और बाघ की बली तो नहीं ही दी जा सकती है| कमजोर बकरी के बच्चे की बलि देना.....क्या ये सिद्ध करता है कि देवता दुर्बल या कमजोर का घातक है? देवता या ईश्वर को दीनबंधु,दयानिधि, करूणानिधि आदि नामों से जाना  जाता है , तो फिर उनके लिए एक निर्दोष जीव की बलि देना कहाँ  तक युक्तिसंगत है ? यदि बलि ही देना हो तो पशु की नहीं अपितु अपने भीतर छिपे हुए पशुता की देनी चाहिए | जैविक दृष्टि से मनुष्य भी एक एनिमल(पशु) है ,धर्मं,संस्कार एवं अच्छे कर्म से ही वह एक सामाजिक प्राणी बना हुआ है |यदि पशुता की बलि की जगह पशु बलि को बढ़ावा देंगे, तो मनुष्य एक दिन इतना हिंसक हो जाएगा कि आदमी ही आदमी को मार कर खाने लगेगा | इसीलिए मेरा अनुरोध है....... ऐ  मौत के फंदे में झूलते हुए इन्सान ,देवी देवता के नाम पर निर्दोष पशुओं की बलि चढ