Tamso Ma Jyotirgamaya

|| तमसो माँ ज्योतिर्गमय ||
                                      उपनिषद का ये सूत्रवाक्य अपने में बहुत बड़ा भाव समेटे हुए है  |तम का अर्थ है अंधकार ,जबकि ज्योति का अर्थ है प्रकाश | इस प्रकार संपूर्ण वाक्य का  शाब्दिक अर्थ हुआ कि  मुझे अन्धकार से प्रकाश की और ले चलो | परतु अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने में कौन सहायक  होगा ? 
                           विचार करने पर पता चलता है की ईश्वर की असीम अनुकम्पा से एक योग्य गुरु मिल जाय, तो अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने वाली यात्रा सहज और सुगम हो जाएगा |गुरु दो शब्दों के मेल से बना है "गु" ओर "रु"| गु का अर्थ होता है- अन्धकार तथा  रु  का अर्थ होता है- प्रकाश, अर्थात गुरु वह है जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाए | तभी तो तुलसीदास ने रामचरितमानस में गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए अनेक पदों की रचना की है | यथा 
                                                      बंदौ गुरु पद कंज कृपा सिन्धु नर रूप हरि,
                                                      महा मोह तम पुंज जासु वचन रवि कर  निकर |
                         आशय यह कि गुरु के चरण कि बंदना करता हु जो कृपा के सागर है तथा महा मोह रुपी अन्धकार में जिसकी वाणी सूर्या की  किरण के समान है |
                         जिसप्रकार  रत के घने अन्धकार सुबह के सूर्या कि किरणों से समाप्त हो जाती है उसी प्रकार मोह रुपी गहन अन्धकार को दूर करने में गुरु कि वाणी सक्षम है |

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